मुंशी प्रेमचंद का जीवन परिचय। BIOGRAPHY OF MUNSHI PREMCHAND IN HINDI

 मुंशी प्रेमचंद का जीवन परिचय, BIOGRAPHY OF    MUNSHI PREMCHAND  IN HINDI



TABLE OF CONTENT-

1. उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद का जीवन परिचय (Munshi Premchand biography in hindi)

1.1. मुंशी प्रेमचंद जी की जीवनी (Munshi Premchand Jeevani)

1.2. मुंशी प्रेमचंद की शिक्षा (Munshi Premchand

Education)

1.3. मुंशी प्रेमचंद का विवाह (Munshi Premchand marriage)

1. 4. मुंशी प्रेमचंद की कार्यशैली

1.5. प्रेमचंद जी की प्रमुख रचनाओ के नाम (Munshi Premchand creations Name)

1.6. मुंशी प्रेमचंद द्वारा कथित कथन व अनमोल वचन (Munshi Premchand Quotes in hindi)


2. FAQ



 1. जन्म

प्रेमचन्द का जन्म 31 जुलाई सन् 1880 को बनारस शहर से चार मील दूर लमही गाँव में हुआ था। आपके पिता का नाम अजायब राय था। वह डाकखाने में मामूली नौकर के तौर पर काम करते थे।


2.जीवन

धनपतराय की उम्र जब केवल आठ साल की थी तो माता के स्वर्गवास हो जाने के बाद से अपने जीवन के अन्त तक लगातार विषम परिस्थितियों का सामना धनपतराय को करना पड़ा। पिताजी ने दूसरी शादी कर ली जिसके कारण बालक प्रेम व स्नेह को चाहते हुए भी ना पा सका। कहा जाता है कि आपके घर में भयंकर गरीबी थी। पहनने के लिए कपड़े न होते थे और न ही खाने के लिए पर्याप्त भोजन मिलता था। इन सबके अलावा घर में सौतेली माँ का व्यवहार भी हालत को खस्ता कर रहा था।


3.शादी


आपके पिता ने केवल 15 वर्ष की आयु में आपका विवाह करा दिया। पत्नी उम्र में आपसे बड़ी और बदसूरत थी। पत्नी की सूरत और उसके जबान ने आपके जले पर नमक का काम किया। आप स्वयं लिखते हैं, "उम्र में वह मुझसे ज्यादा थी। जब मैंने उसकी सूरत देखी तो मेरा खून सूख गया।" उसके साथ-साथ जबान की भी मीठी न थी। आपने अपनी शादी के फैसले पर पिता के बारे में लिखा है " पिताजी ने जीवन के अन्तिम सालों में एक ठोकर खाई और स्वयं तो गिरे ही, साथ में मुझे भी डुबो दिया: मेरी शादी बिना सोचे समझे कर डाली।" हालांकि आपके पिताजी को भी बाद में इसका एहसास हुआ और काफी अफसोस किया।


विवाह के एक वर्ष बाद ही पिताजी का देहान्त हो गया। अचानक आपके सिर पर पूरे घर का बोझ आ गया। एक साथ पाँच लोगों का खर्चा सहन करना पड़ा। पाँच लोगों में विमाता, उसके दो बच्चे पत्नी और स्वयं । प्रेमचन्द की आर्थिक विपत्तियों का अनुमान इस घटना से लगाया जा सकता है कि पैसे के अभाव में उन्हें अपना कोट बेचना पड़ा और पुस्तकें बेचनी पड़ी। एक दिन ऐसी हालत हो गई कि वे अपनी सारी पुस्तकों को लेकर एक बुकसेलर के पास पहुंच गए। वहाँ एक हेडमास्टर मिले जिन्होंने आपको अपने स्कूल में अध्यापक पद पर नियुक्त किया।


4.शिक्षा

अपनी गरीबी से लड़ते हुए प्रेमचन्द ने अपनी पढ़ाई मैट्रिक तक पहुंचाई। जीवन के आरंभ में आप अपने गाँव से दूर बनारस पढ़ने के लिए नंगे पाँव जाया करते थे। इसी बीच पिता का देहान्त हो गया। पढ़ने का शौक था, आगे चलकर वकील बनना चाहते थे। मगर गरीबी ने तोड़ दिया। स्कूल आने-जाने के झंझट से बचने के लिए एक वकील साहब के यहाँ ट्यूशन पकड़ लिया और उसी के घर एक कमरा लेकर रहने लगे। ट्यूशन का पाँच रुपया मिलता था। पाँच रुपये में से तीन रुपये घर वालों को और दो रुपये से अपनी जिन्दगी की गाड़ी को आगे बढ़ाते रहे। इस दो रुपये से क्या होता महीना भर तंगी और अभाव का जीवन बिताते थे। इन्हीं जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियों में मैट्रिक पास किया।


5.साहित्यिक रुचि


गरीबी, अभाव, शोषण तथा उत्पीड़न जैसी जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियाँ भी प्रेमचन्द के साहित्य की ओर उनके झुकाव को रोक न सकी । प्रेमचन्द जब मिडिल में थे तभी से आपने उपन्यास पढ़ना आरंभ कर दिया था। आपको बचपन से ही उर्दू आती थी। आप पर नॉवल और उर्ट उपन्यास का ऐसा उन्माद छाया कि आप बकसेलर की दुकान पर बैठकर ही सब नॉवल पढ़ गए। आपने दो - तीन साल के अन्दर ही सैकड़ों नॉवेलों को पढ़ डाला।


आपने बचपन में ही उर्दू के समकालीन उपन्यासकार सरुर मोलमा शार, रतन नाथ सरशार आदि के दीवाने हो गये कि जहाँ भी इनकी किताब मिलती उसे पढ़ने का हर संभव प्रयास करते थे। आपकी रुचि इस बात से साफ झलकती है कि एक किताब को पढ़ने के लिए आपने एक तम्बाकू वाले से दोस्ती करली और उसकी दुकान पर मौजूद "तिलस्मे - होशरुबा" पढ़ डाली।


अंग्रेजी के अपने जमाने के मशहूर उपन्यासकार रोनाल्ड की किताबों के उर्दू तरजुमो को आपने काफी कम उम्र में ही पढ़ लिया था। इतनी बड़ी बड़ी किताबों और उपन्यासकारों को - पढ़ने के बावजूद प्रेमचन्द ने अपने मार्ग को अपने व्यक्तिगत विषम जीवन अनुभव तक ही महदूद रखा।


तेरह वर्ष की उम्र में से ही प्रेमचन्द ने लिखना आरंभ कर दिया था। शुरु में आपने कुछ नाटक लिखे फिर बाद में उर्दू में उपन्यास लिखना आरंभ किया। इस तरह आपका साहित्यिक सफर शुरु हुआ जो मरते दम तक साथ-साथ रहा।


6.प्रेमचन्द की दूसरी शादी


आपकी पहली पत्नी पारिवारिक कटुताओं के कारण घर छोड़कर मायके चली गई फिर वह कभी नहीं आई। विच्छेद के बावजूद कुछ सालों तक वह अपनी पहली पत्नी को खर्चा भेजते रहे। 1905 के अन्तिम दिनों में आपने शिवरानी देवी से शादी कर ली। शिवरानी देवी एक बाल विधवा थी और विधवा के प्रति आप सदा स्नेह के पात्र रहे थे।


दूसरी शादी के पश्चात् आपके जीवन में परिस्थितियां कुछ बदली और आय की आर्थिक तंगी कम हुई। आपके लेखन में अधिक सजगता आई। आपकी पदोन्नति हुई तथा आप स्कूलों के डिप्टी इन्सपेक्टर बना दिये गए। इसी खुशहाली के जमाने में आपकी पाँच कहानियों का संग्रह 'सोजे वतन' प्रकाश में आया। यह संग्रह काफी मशहूर हुआ।


7.व्यक्तित्व


सादा एवं सरल जीवन के मालिक प्रेमचन्द सदा मस्त रहते थे। उनके जीवन में विषमताओं और कटुताओं से वह लगातार खेलते रहे। इस खेल को उन्होंने बाजी मान लिया जिसको हमेशा जीतना चाहते थे। अपने जीवन की परेशानियों को लेकर उन्होंने एक बार मुंशी दयानारायण निगम को एक पत्र में लिखा "हमारा काम तो केवल खेलना है - खूब दिल लगाकर खेलना- खूब जी-तोड़ खेलना, अपने को हार से इस तरह बचाना मानों हम दोनों लोकों की संपत्ति खो बैठेंगे। किन्तु हारने के पश्चात् - पटखनी खाने के बाद, झाड़ खड़े हो जाना चाहिए और फिर ताल ठोंक कर विरोधी से कहना चाहिए कि एक बार फिर जैसा कि सूरदास कह गए हैं, "तुम जीते हम हारे। पर फिर लड़ेंगे।" कहा जाता है कि प्रेमचन्द हंसोड़ प्रकृति के मालिक थे। विषमताओं भरे जीवन में हंसोड़ होना एक बहादुर का काम है। इससे इस बात को भी समझा जा सकता है कि वह अपूर्व जीवनी- शक्ति का द्योतक थे। सरलता, सौजन्यता और उदारता के वह मूर्ति थे।


जहां उनके हृदय में मित्रों के लिए उदार भाव था वहीं उनके हृदय में गरीबों एवं पीड़ितों के लिए सहानुभूति का अथाह सागर था। जैसा कि उनकी पत्नी कहती हैं "कि जाड़े के दिनों में चालीस - चालीस रुपये दो बार दिए गए दोनों बार उन्होंने वह रुपये प्रेस के मजदूरों को दे दिये। मेरे नाराज होने पर उन्होंने कहा कि यह कहां का इंसाफ है कि हमारे प्रेस में काम करने वाले मजदूर भूखे हों और हम गरम सूट पहनें। "


प्रेमचन्द उच्चकोटि के मानव थे। आपको गाँव जीवन से अच्छा प्रेम था। वह सदा साधारण गंवई लिबास में रहते थे।


जीवन का अधिकांश भाग उन्होंने गाँव में ही गुजारा। बाहर से बिल्कुल साधारण दिखने वाले प्रेमचन्द अन्दर से जीवनी- शक्ति के मालिक थे । अन्दर से जरा सा भी किसी ने देखा तो उसे प्रभावित होना ही था। वह आडम्बर एवं दिखावा से मीलों दूर रहते थे। जीवन में न तो उनको विलास मिला और न ही उनको इसकी तमन्ना थी। तमाम महापुरुषों की तरह अपना काम स्वयं करना पसंद करते थे। 20%


8.ईश्वर के प्रति आस्था


जीवन के प्रति उनकी अगाढ़ आस्था थी लेकिन जीवन की विषमताओं के कारण वह कभी भी ईश्वर के बारे में आस्थावादी नहीं बन सके। धीरे-धीरे वे अनीश्वरवादी से बन गए थे। एक बार उन्होंने जैनेन्दजी को लिखा "तुम आस्तिकता की ओर बढ़े जा रहे हो - जा रहीं रहे पक्के भग्त बनते जा रहे हो। मैं संदेह से पक्का नास्तिक बनता जा रहा हूँ।"


मृत्यू के कुछ घंटे पहले भी उन्होंने जैनेन्द्रजी से कहा था- "जैनेन्द्र, लोग ऐसे समय में ईश्वर को याद करते हैं मुझे भी याद दिलाई जाती है। पर मुझे अभी तक ईश्वर को कष्ट देने की आवश्यकता महसूस नहीं हुई । "


9.प्रेमचन्द की कृतियाँ


प्रेमचन्द ने अपने नाते के मामू के एक विशेष प्रसंग को लेकर अपनी सबसे पहली रचना लिखी। 13 साल की आयु में। 1894 में "होनहार बिरवार के चिकने-चिकने पात" नामक नाटक की रचना की। 1898 में एक उपन्यास लिखा। लगभग इसी समय "रुठी रानी" नामक दूसरा उपन्यास जिसका विषय इतिहास था, की रचना की। 1902 में प्रेमा और 1904-05 में "हम खुर्मा व हम सवाब" नामक उपन्यास लिखे गए। इन उपन्यासों में विधवा - जीवन और विधवा-समस्या का चित्रण प्रेमचन्द ने काफी अच्छे ढंग से किया।


जब कुछ आर्थिक निर्जिंश्चतता आई तो 1907 में पाँच कहानियों का संग्रह सोजे वतन ( वतन का दुख दर्द ) की रचना की, जैसाकि इसके नाम से ही मालूम होता है, इसमें देश प्रेम और देश को जनता के दर्द को रचनाकार ने प्रस्तुत किया। अंग्रेज शासकों को इस संग्रह से बगावत की झलक मालूम हुई। इस समय प्रेमचन्द नवाबराय के नाम से लिखा करते थे। लिहाजा नवाबराय की खोज शुरु हुई। नवाबराय पकड़ लिये गए। उस दिन आपके सामने ही आपकी इस कृति को अंग्रेजी शासकों ने जला दिया और बिना आज्ञा न लिखने का बंधन लगा दिया गया।


इस बंधन से बचने के लिए प्रेमचन्द ने दयानारायण निगम को पत्र लिखा और उनको बताया कि वह अब कभी नयाबराय या धनपतराय के नाम से नहीं लिखेंगे तो मुंशी दयानारायण निगम ने पहली बार प्रेमचन्द नाम सुझाया। यहीं से धनपतराय हमेशा के लिए प्रेमचन्द हो गये ।


"सेवा सदन", "मिल मजदूर " तथा 1935 में गोदान की रचना की। गोदान आपकी समस्त रचनाओं में सबसे अधिक लोकप्रिय हुई। अपने जीवन के अंतिम दिनों में 'मंगलसूत्र' उपन्यास लिखना आरंभ किया। दुर्भाग्यवश मंगलसूत्र को अधूरा ही छोड़ गये। इससे पहले उन्होंने महाजनी और पूँजीवादी युग प्रवृत्ति की निन्दा करते हुए "महाजनी सभ्यता" नाम से एक लेख भी लिखा था।


10.मृत्यु


1936 में प्रेमचन्द बीमार रहने लगे। अपने इस बीमार काल में ही आपने "प्रगतिशील लेखक संघ" की स्थापना में सहयोग दिया। आर्थिक कष्टों तथा इलाज ठीक से न कराये के कारण 8 अक्टूबर 1936 को आपका देहान्त हो गया। इस तरह यह दीप सदा के लिए बुझ गया जिसने अपनी जीवन की बत्ती को कण-कण जलाकर हिंदी साहित्य का पथ आलोकित किया।


11.प्रेमचंद की सर्वोत्तम 15 कहानियां


मुंशी प्रेमचंद को उनके समकालीन पत्रकार बनारसीदास चतुर्वेदी ने 1930 में उनकी प्रिय रचनाओं के बारे में प्रश्न किया, "आपकी सर्वोत्तम पन्द्रह गल्पें कौनसी हैं ?"


प्रेमचंद ने उत्तर दिया, "इस प्रश्न का जवाब देना कठिन है। 200 से ऊपर गल्पों में कहाँ से चुनूँ, लेकिन स्मृति से काम


लेकर लिखता हूँ - -


1. बड़े घर की बेटी


2. रानी सारन्धा


3. नमक का दरोगा


4. सौत


5. आभूषण


6. प्रायश्चित


7. कामना


8. मन्दिर और मसजिद


9. घासवाली


10. महातीर्थ


11. सत्याग्रह


12. लांछन


13. सती


14. लैला


15. मन्त्र"


पुत्र- प्रेम


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बाबू चैतन्यदास ने अर्थशास्त्र खूब पढ़ा था, और केवल पढ़ा ही नहीं था, उसका यथायोग्य व्यवहार भी वे करते थे। वे वकील थे, दो-तीन गांवों में उनकी जमींदारी भी थी, बैंक में भी कुछ रुपये थे। यह सब उसी अर्थशास्त्र के ज्ञान का फल था। जब कोई खर्च सामने आता तब उनके मन में स्वभावतः: प्रश्न होता था - इससे स्वयं मेरा उपकार होगा या किसी अन्य पुरुष का ? यदि दो में से किसी का कुछ भी उपकार न होता तो वे बड़ी निर्दयता से उस खर्च का गला दबा देते थे । 'व्यर्थ' को वे विष के समाने समझते थे। अर्थशास्त्र के सिद्धांत उनके जीवन-स्तम्भ हो गये थे।


12.प्रेमचंद की लघुकथाएं


प्रेमचंद के लघुकथा साहित्य की चर्चा करें तो प्रेमचंद ने लघु आकार की विभिन्न कथा-कहानियां रची हैं। इनमें से कुछ लघु- कथा के मानक पर खरी उतरती है व अन्य लघु कहानियां कही जा सकती हैं। प्रेमचंद की लघु-कथाओं में कश्मीरी सेब, राष्ट्र का सेवक, देवी, बंद दरवाज़ा, व बाबाजी का भोग प्रसिद्ध हैं। यह पृष्ठ प्रेमचंद की लघु-कथाओं को समर्पित है।




पूस की रात


हल्कू ने आकर स्त्री से कहा-सहना आया है, लाओ, जो रुपए रखे हैं, उसे दे दूँ। किसी तरह गला तो छूटे। मुन्नी झाड़ू लगा रही थी। पीछे फिर कर बोली-तीन ही तो रुपए हैं, दे दोगें तो कंबल कहाँ से आवेगा? माघ- पूस की रात हार में कैसे कटेगी? उससे कह दो, फसल पर रुपए दे देंगे। अभी नहीं ।


प्रेम की होली


गंगी का सत्रहवाँ साल था, पर वह तीन साल से विधवा थी, और जानती थी कि मैं विधवा हूँ, मेरे लिए संसार के सुखों के द्वार बन्द हैं। फिर वह क्यों रोये और कलपे? मेले से सभी तो मिठाई के दोने और फूलों के हार लेकर नहीं लौटते? कितनों ही का तो मेले की सजी दुकानें और उन पर खड़े नर-नारी देखकर ही मनोरंजन हो जाता है। गंगी खाती-पीती थी, हँसती-बोलती थी, किसी ने उसे मुँह लटकाये, अपने भाग्य को रोते नहीं देखा। घड़ी रात को उठकर गोबर निकालकर, गाय-बैलों को सानी देना, फिर उपले पाथना, उसका नित्य का नियम था। तब वह अपने भैया को गाय दुहाने के लिए जगाती थी। फिर कुएँ से पानी लाती, चौके का धन्धा शुरू हो जाता। गाँव की भावजें उससे हँसी करतीं, पर एक विशेष प्रकार की हँसी छोड़कर सहेलियाँ ससुराल से आकर उससे सारी कथा कहतीं, पर एक विशेष प्रसंग बचाकर सभी उसके वैधव्य का आदर करते थे। जिस छोटे से अपराध के लिए, उसकी भावज पर घुड़कियाँ पड़ती, उसकी माँ को गालियाँ मिलतीं, उसके भाई पर मार पड़ती, वह उसके लिए क्षम्य था । जिसे ईश्वर ने मारा है, उसे क्या कोई मारे ! जो बातें उसके लिए वर्जित थीं उनकी ओर उसका मन ही न जाता था। उसके लिए उसका अस्तित्व ही न था। जवानी के इस उमड़े हुए सागर में मतवाली लहरें न थीं, डरावनी गरज न थी, अचल शान्ति का साम्राज्य था।


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सद्गति | प्रेमचंद की कहानी


दुखी चमार द्वार पर झाडू लगा रहा था और उसकी पत्नी झुरिया, घर को गोबर से लीप रही थी। दोनों अपने-अपने का से फुर्सत पा चुके थे, तो चमारिन ने कहा, 'तो जाके पंडित से कह आओ न। ऐसा न हो कहीं चले जाएं जाएं।'


जीवन सार


मेरा जीवन सपाट, समतल मैदान है, जिसमें कहीं-कहीं गढ़े तो हैं, पर टीलों, पर्वतों, घने जंगलों, गहरी घाटियों और खण्डहरों का स्थान नहीं है। जो सज्जन पहाड़ों की सैर के शौकीन हैं, उन्हें तो यहाँ निराशा ही होगी। मेरा जन्म सम्वत् १९६७ में हुआ। पिता डाकखाने में क्लर्क थे, माता मरीज । एक बड़ी बहिन भी थी। उस समय पिताजी शायद २० रुपये पाते थे ४० रुपये तक पहुँचते-पहुँचते उनकी मृत्यु हो गयी यों वह बड़े ही । विचारशील, जीवन-पथ पर आँखें खोलकर चलने वाले आदमी थे; लेकिन आखिरी दिनों में एक ठोकर खा ही गये और खुद तो गिरे ही थे, उसी धक्के में मुझे भी गिरा दिया। पन्द्रह साल की अवस्था में उन्होंने मेरा विवाह कर दिया और विवाह करने के साल ही भर बाद परलोक सिधारे। उस समय मैं नवें दरजे में पढ़ता था। घर में मेरी स्त्री थी, विमाता थी, उनके दो बालक थे, और आमदनी एक पैसे की नहीं। घर में जो कुछ लेई-पूँजी थी, वह पिताजी की छ: महीने की बीमारी और क्रिया-कर्म में खर्च हो चुकी थी। और मुझे अरमान था, वकील बनने का और एम०ए० पास करने का। नौकरी उस जमाने में भी इतनी ही दुष्प्राप्य थी, जितनी अब है। दौड़-धूप करके शायद दस-बारह की कोई जगह पा जाता; पर यहाँ तो आगे पढ़ने की धुन थी- पाँव में लोहे की नहीं अष्टधातु की बेडियाँ थीं और मैं चढना चाहता था पहाड़ पर !


13.प्रेमचंद के आलेख व निबंध


प्रेमचंद के साहित्य व भाषा संबंधित निबंध व भाषण 'कुछ विचार' नामक संग्रह में संकलित हैं। इसके अतिरिक्त 'साहित्य' का उद्देश्य में प्रेमचंद की अधिकांश सम्पादकीय टिप्पणियां संकलित हैं।


यहाँ प्रेमचंद के भाषण, आलेख व निबंधों को संकलित किया जा रहा है। निसंदेह यह संकलन पाठकों को साहित्यकार प्रेमचंद को एक विचारक के रूप में भी समझने का अवसर प्रदान करेगा।


...


प्रेमचंद ने कहा था-


• बनी हुई बात को निभाना मुश्किल नहीं है, बिगड़ी हुई बात को बनाना मुश्किल है। [रंगभूमि]


क्रिया के पश्चात् प्रतिक्रिया नैसर्गिक नियम है। [ मानसरोवर - सवासेर • रूखी रोटियाँ चाँदी के थाल में भी परोसी जायें तो वे पूरियाँ न हो जायें [सेवासदन]


कड़वी दवा को ख़रीद कर लाने, उनका काढ़ा बनाने और उसे


उठाकर में बड़ा अन्तर है। [सेवासदन]


• चोर को पकड़ने के लिए विरले ही निकलते हैं, पकड़े गए चोर पर पंचलत्तिया जमाने के लिए सभी पहुँच जाते हैं। [ रंगभूमि]


• जिनके लिए अपनी जिन्दगानी ख़राब कर दो, वे भी गाढ़े समय पर मुँह


फेर लेते हैं। [ रंगभूमि] मुलम्मे की जरूरत सोने को नहीं होती। [कायाकल्प ]


सूरज जलता भी है, रोशनी भी देता है। [कायाकल्प]


• सीधे का मुँह कुत्ता चाटता है। [कायाकल्प]


• उत्सव आपस में प्रीति बढ़ाने के लिए मनाए जाते है। जब प्रीति के बद द्वेष बढ़े, तो उनका न मनाना ही अच्छा है। [कायाकल्प]


• पारस को छूकर लोहा सोना हो जाता है, पारस लोहा नहीं हो सकता। मानसरोवर मंदिर]


• बिना तप के सिद्धि नहीं मिलती। [मानसरोवर - बहिष्कार ]


अपने रोने से छुट्टी ही नहीं मिलती, दूसरों के लिए कोई क्योकर रोये ?


[ मानसरोवर जेल]


मर्द लज्जित करता है तो हमें क्रोध आता है। स्त्रियाँ लज्जित करती हैं

अगर माँस खाना अच्छा समझते हो तो खुलकर खाओ। बुरा समझते। तो मत खाओ, लेकिन अच्छा समझना और छिपकर खाना यह मेरी स आता। मैं तो इसे कायरता भी कहता हूँ और धूर्तता भी, जो वा में एक है।


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14.प्रेमचंद  के कुछ संस्मरण


प्रेमचंद अपनी वाक्-पटुता के लिए भी प्रसिद्ध हैं। धीर-गंभीर दिखने वाले 'प्रेमचंद' कर्म और वाणी के धनी थे। प्रेमचंद के बहुत से किस्से कहे- सुने जाते हैं। यहाँ उन्हीं संस्मरणों को आपके लिए संकलित किया जा रहा है।


FAQ


Q- मुंशी प्रेमचंदकिस लिए प्रसिद्ध है?

Ans- मुंशी प्रेमचंद आधुनिक हिन्दुस्तानी साहित्य के लिए प्रसिद्ध है।


Q- मुंशी प्रेमचंद की कौन सी उपासना है?

Ans- मुंशी प्रेमचंद की गोदान, ईदगाह, कफन, निर्मला, दो बेलों की कथा है।


Q- मुंशी प्रेमचंद कितनी रचनाएं हैं?

Ans- मुंशी प्रेमचंद 300 रचनाएं हैं।


Q- मुंशी प्रेमचंद का जन्म कब और कहां हुआ था?

Ans- मुंशी प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 को लमती वाराणसी में हुआ था।


Q- मुंशी प्रेमचंद की मृत्यृ कब हुई?

Ans- मुंशी प्रेमचंद की मृत्यृ 8 अक्टूबर 1936 को वाराणसी में हुआ।






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